भाग्य विधाता
हम मज़दूरों का हक़ ना मारो, मजबुर तुम हमको ना जानो, मेहनत की हम खाते हैं , आधे वेतन में ही खुश हो जाते हैं , रक़्त जब पसीना बनकर बहता हैं, तब साहब खुश होकर कहता है, जा तुझको बड़ा ईनाम दिया ,आधी मजदूरी देकर तेरा सम्मान किया , पुराना वक़्त है बदल चुका, हर कामगार अपना अधिकार है समझ चुका, कब तक हमें तुम रोक पाओगे ,कब तक हक़ हमारा तुम छिन पाओगे, अत्याचार की अब इंतहा हो गयी, तेरी उल्टी गिनती अब शुरू हो गयी , वक़्त रहते तुम संभल जाओ , छोड़ो पद और कुर्सी से तुम उतर जाओ , हर दबी आवाज़ अब बाग़ी होगी , हर कलम में आग की स्याही होगी, ये आसमाँ हमारी माँगो से गूंजेगा , हर लेख हमारे तेरे कारनामे उकेरेगा , हमारी माँगे मानो तुम , हमारा पुराना स्वाभिमान लौटा दो तुम , अपने अधिकारो से हमारा नाता है , हम ही ख़ुद के भाग्य विधाता हैं । “रजनीश भारद्वाज”