प्रवासी

कोई उनसे भी जा के पूछे, हमें प्रवासी क्यों है बुलाते,
देश है ये मेरा भी , फिर हमें प्रवासी क्यों है बताते ,

मजबुर थे जड़ा सा , दर दर की ठोकरें भी है खाई,
इसका अर्थ तो नहीं की, हर कोई हमें प्रवासी ही बुलाये,

माना कि हम ग़रीब है, पहचान हमारी फ़क़ीर है,
इसका अर्थ क़तई नहीं की, हमने बेच दी ज़मीर है,

सड़के जो हम ने नाप दी, मेहनत भी तुमने देख ली,
भूखे पेट ही चलते रहे, ख़ुद्दारी भी तुमने देख ली,

और बताओ क्या साबित करे, की तुम हमें अपना मान लो,
ताकि फिर किसी मजबुर को, तुम प्रवासी ना कहो ।

                       “रजनीश भारद्वाज”

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